Saturday, February 11, 2017

निकल जाता हूँ आज भी अक्सर
बीती हुई गलियों में
खुद को ढूँढने
जबकि
लोग आगे की और दौड़ रहे हैं
और बस दौड़ते ही जा रहे हैं
आँख खुलने से
आँख बंद होने तक
अनवरत
एक अजीब सी दौड़ है
जाने कब शुरू हो जाती है
और कहाँ ख़त्म होती है
कोई नहीं जानता
शायद वृद्धावस्था तक
नहीं
शायद साँस के चलने तक
कहते हैं ये तरक्की की दौड़ है
जिसमे न कोई अपना
न अपनापन
न मिलने-चिलने का
वो दीवानापन
बस निकल जाते हैं आगे
गिरने वाले के कलेजे पे
पैर रखकर
मगर
मुझे आज तलक
इस दौड़ का हिस्सा बनना नहीं आया
इसीलिए
लोग आगे निकल जाते हैं
धक्का मारकर
और मैं आज भी पीछे
सबसे पीछे
इंतज़ार कर रहा हूँ
उस बीते वक़्त का
प्यार, वफ़ा, अपनेपन का वो वक़्त
शायद कभी तो खुद को दोहरायेगा

#मुदित

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